Saturday, March 18, 2017

चीखती खामोशियाँ


हँसती खेलती गुड़िया थी वो मेरे आँगन की,
दिखती थी मुझको अब वो चुप चाप अँधेरे कमरे में।

पहले उछल कूद करती आती थी, चहकती हुई उसकी आवाज़ पुरे घर को महकाती थी।

आज वो आवाज़ कहीं खोती हुई सी मालूम हुई, हँसता उसका चेहरा मनो, वो सबसे अंजान हुई।

उसके आँखों की चमक, उसके नन्हें क़दमो की आवाज़, घर में कहीं मनो दबती जा रही थी।

जो नज़रे खोजती थी एक वक़्त पे मुझको, आज वो जाने क्यों नज़रे चुरा के निकल जाती हैं।

थाम लेते थे जो हाथ मेरे हाथों को, वो अब बच के फ़िसल जाते हैं।

हुआ अचानक से मेरा उससे आमना सामना रात के अँधेरे में, बोलती हुई सी वो फिर कुछ रुक सी गयी थी।

उस दिन उसकी आँखों में वो डर देखा था मैंने, सहम सी गयी थी वो जब हाथ थामा था उसका मैंने।

काँप सी गयी वो छोटी सी गुड़िया, एहसास हुआ जब उसको मेरे छूने का।

थर्राई आवाज़ में बोली वो,"कौन है, क्या हुआ"!

दिल मेरा सहम सा गया, जब महसूस किया मैंने उसका छुवन पथराया सा।

अंदेशा था दिल को मेरे, की स्वाभाविक सा नहीं ये अंदाज़ मेरी गुड़िया का।

तकलीफ में है ये नन्ही सी जान, ज़ुबा इसकी जो आज ख़ामोश है...।
प्यार से फेरा मैंने उसके सर पे हाथ, कहा चलो घर चलते हैं,

बोली वो अपनी तुतलाई आवाज़ में"मुझे घर नहीं जाना, कहीं और चलते हैं"!

समझा जब उसका दर्द मुझे, आक्रोश आंसू बन चालक पड़ा नयनो से।

चली गयी मैं बहुत दूर लेकर, उसको सामाजिक भेड़ियों की नज़रों से परे।

ठान के मन में अपने ये, आने ना दूंगी आंच उसके साये को भी, दूंगी उसको प्यार भरपूर।

जो सपने सजे होंगे उसकी आँखों में, सब सच करने हैं मुझको।

उसकी खुशी, उसकी हंसी, उन आँखों की धुंधलाई हुई चमक, अब वापस लानी है मुझको।